जयप्रकाश कर्दम की कविता- मैं इंक़लाबी हो गया हूँ सिर से बहता ख़ून और शरीर पर अनगिनत गहरे ज़ख़्म फिर भी इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगाता संघर्ष के मोर्चे पर डटा वह कौन था मैं नहीं जानता उसका नाम, ग्राम, चेहरा कुछ भी सब कुछ अपरिचित है मेरे लिए जानता हूँ तो सिर्फ़ इतना कि वह सिर्फ़ अपने लिए नहीं लड़ा वह लड़ा है इंसानियत के लिए इंसानी हक़ों की रक्षा के लिए वह लड़ा है मेरे लिए भी मेरा सलाम है उसको जिसने खायी हैं अपने सिर पर लाठियाँ मेरे हिस्से की सामना किया है हड्डियाँ जमाती ठंड में ठंडे पानी की बोछारों का मेरी ख़ातिर झेली है आखों में आँसू गैस की तीव्र जलन सही है बटों और बूटों की बेरहम मार अपनी पसलियों पर बिना उफ़ किए और खायी हैं अपने सीने पर गोलियाँ जो लगनी चाहिए थीं मेरे सीने में मर गया वह इंक़लाब और आज़ादी के नारे लगाता हुआ मैं उससे कभी नहीं मिला न कभी उसको देखा लेकिन जब से सुना है उसके बारे में कि मर गया वह यातनाएँ सहते-सहते मेरी आँखों में उतर आया है उसकी यातनाओं का दर्द मेरी पसलियों में समा गयी हैं उसकी पसलियां मेरे चेहरे पर उभर आया है उसका चेहरा बस गया है आकर मेरे कलेजे में उसका हौसला और जुनून अब मैं मैं नहीं रहा मैं वह हो गया हूँ मैं इंक़लाबी हो गया हूँ। *******